Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


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जिस दिन से बारात लौट गई, उसी दिन से कृष्णचन्द्र फिर से बाहर नहीं निकले। मन मारे हुए अपने कमरे में बैठे रहते। उन्हें अब किसी को अपना मुंह दिखाते लज्जा आती थी। दुश्चरित्रा सुमन ने उन्हें संसार की दृष्टि में चाहे कम गिराया हो, पर वह अपनी दृष्टि में कहीं के न रहे। वे अपने अपमान को सहन न कर सकते थे। वे तीन-चार साल कैद रहे, फिर भी अपनी आंखों में इतनें नीचे नहीं गिरे थे। उन्हें इस विचार से संतोष हो गया था कि दंड-भोग मेरे कुकर्म का फल है। लेकिन इस कालिमा ने उनके आत्मगौरव का सर्वनाश कर दिया। वह अब नीच मनुष्यों के पास भी नहीं जाते थे, जिनके साथ बैठकर वह चरस की दम लगाया करते थे। वह जानते थे कि मैं उनसे भी नीचे गिर गया हूं। उन्हें मालूम होता था कि सारे संसार में मेरी ही निंदा हो रही है। लोग कहते होंगे कि इसकी बेटी...यह खयाल आते ही वह मर्यादा का नाश करेगी, तो मैंने उसका गला घोंट दिया होता। यह मैं जानता हूं कि वह अभागिनी थी, किसी बड़े धनी कुल में रहने योग्य थी, भोग-विलास पर जान देती थी। पर यह मैं नहीं जानता था कि उसकी आत्मा इतनी निर्बल है। संसार में किसके दिन समान होते हैं? विपत्ति सभी पर आती है। बड़े-बड़े धनवानों की स्त्रियां अन्न-वस्त्र को तरसती हैं, पर कोई उनके मुख पर चिंता का चिह्न भी नहीं देख सकता। वे रो-रोकर दिन काटती है, कोई उनके आंसू नहीं देखता। वे किसी के सामने अपनी विपत्ति की कथा नहीं कहतीं। वे मर जाती हैं, पर किसी का एहसान सिर पर नहीं लेतीं। वे देवियां हैं। वे कुल-मर्यादा के लिए जीती हैं और उसकी रक्षा करती हुई मरती हैं, पर यह दुष्टा, यह अभागिन...और उसका पति कैसा कायर है कि उसने उसका सिर नहीं काट डाला! जिस समय उसने घर से बाहर पैर निकाला, उसने क्यों उसका गला नहीं दबा दिया? मालूम होता है, वह भी नीच, दुराचारी, नार्मद है। उसमें अपनी कुल-मर्यादा का अभिमान होता, तो यह नौबत न आती। उसे अपने अपमान की लाज न होगी, पर मुझे है और मैं सुमन को इसका दंड दूंगा। जिन हाथों से उसे पाला, खिलाया, उन्हीं हाथों से उसके गले पर तलवार चलाऊंगा। यही आंखें उसे खेलती देखकर प्रसन्न होती थीं, अब उसे रक्त में लोटती देखकर तृप्त होंगी। मिटी हुई मर्यादा के पुनरुद्धार का इसके सिवा कोई उपाय नहीं। संसार को मालूम हो जाएगा कि कुल पर मरने वाले पापाचरण का क्या दंड देते हैं।

यह निश्चय करके कृष्णचन्द्र अपने उद्देश्य को पूरा करने के साधनों पर विचार करने लगे। जेलखाने में उन्होंने अभियुक्तों से हत्याकांड के कितने ही मंत्र सीखे थे रात-दिन इन्हीं बातों की चर्चाएं रहती थीं। उन्हें सबसे उत्तम साधन यहीं मालूम हुआ कि चलकर तलवार से उसको मारूं और तब पुलिस में जाकर आप ही इसकी खबर दूं। मजिस्ट्रेट के सामने मेरा जो बयान होगा, उसे सुनकर लोगों की आंखें खुल जाएंगी। मन-ही-मन इस प्रस्ताव से पुलकित होकर वह उस बयान की रचना करने लगे। पहले कुछ सभ्य समाज की विलासिता का उल्लेख करूंगा, तब पुलिस के हथकंडों की कलई खोलूंगा, इसके पश्चात वैवाहिक अत्याचारों का वर्णन करूंगा। दहेज-प्रथा पर ऐसी चोट करूंगा कि सुनकर लोग दंग रह जाएं। पर सबसे महत्त्वशाली वह भाग होगा, जिसमें मैं दिखाऊंगा कि अपनी कुल-मर्यादा के मिटाने वाले हम हैं। हम अपनी कायरता से, प्राण-भय से, लोक-निंदा के डर से, झूठे संतान-प्रेम से, अपनी बेहयाई से, आत्मगौरव की हीनता से, ऐसे पापाचरणों को छिपाते हैं, उन पर पर्दा डाल देते हैं। इसी का यह परिणाम है कि दुर्बल आत्माओं का साहस इतना बढ़ गया है।

कृष्णचन्द्र ने यह संकल्प तो कर लिया, पर अभी तक उन्होंने यह न सोचा कि शान्ता की क्या गति होगी? इस अपमान की लज्जा ने उनके हृदय में और किसी चिंता के लिए स्थान न रखा था। उनकी दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो अपने बालक को मृत्यु-शैया पर छोड़कर अपने किसी शत्रु से बैर चुकाने के लिए उद्यत हो जाए, जो डोंगी पर बैठा हुआ पानी में सर्प देखकर उसे मारने के लिए झपटे और उसे यह सुधि न रहे कि इस झपट से डोंगी डूब जाएगी।

संध्या का समय था। कृष्णचन्द्र ने आज हत्या-मार्ग पर चलने का निश्चय कर लिया था। इस समय उनका चित्त कुछ उदास था। यह वही उदासीनता थी, जो किसी भयंकर काम के पहले चित्त पर आच्छादित हो जाया करती है। कई दिनों तक क्रोध के वेग से उत्तेजित और उन्मत्त रहने के बाद उनका मन इस समय कुछ शिथिल हो गया था। जैसे वायु कुछ समय तक वेग से चलने के बाद शांत हो जाती है। चित्त की ऐसी अवस्था में यह उदासीनता बहुत ही उपयुक्त होती है। उदासीनता वैराग्य का सूक्ष्य स्वरूप है, जो थोड़ी देर के लिए मनुष्य को अपने जीवन पर विचार करने की क्षमता प्रदान कर देती है, उस समय पूर्वस्मृतियां हृदय में क्रीड़ा करने लगती हैं। कृष्णचन्द्र को वे दिन याद आ रहे थे, जब उनका जीवन आनंदमय था, जब वह नित्य संध्या समय अपनी दोनों पुत्रियों को साथ लेकर सैर करने जाया करते थे। कभी सुमन को गोद में उठाते, कभी शान्ता को। जब वे लौटते तो गंगाजली किस तरह प्रेम से दौड़कर दोनों लड़कियों को प्यार करने लगती थी। किसी आनंद का अनुभव इतना सुखद नहीं होता, जितना उसका स्मरण। वही जंगल और पहाड़, जो कभी आपको सुनसान और बीहड़ प्रतीत होते थे, वह नदियां और झीलें जिनके तट पर से आप आंखें बंद किए निकल जाते थे, कुछ समय के पीछे एक अत्यंत मनोरम, शांतिमय रूप धारण करके स्मृतिनेत्रों के सामने आती है और फिर आप उन्हीं दृश्यों को देखने की आकांक्षा करने लगते हैं। कृष्णचन्द्र उस भूतकालिक जीवन का स्मरण करते-करते गद्गद हो गए। उनकी आंखों से आंसू की बूंदें टपक पड़ी। हाय! उस आनंदमय जीवन का ऐसा विषादमय अंत हो रहा है! मैं अपने ही हाथों से अपनी ही गोद की खिलाई हुई लड़की का वध करने को प्रस्तुत हो रहा हूं। कृष्णचन्द्र को सुमन पर दया आई। वह बेचारी कुएं में गिर पड़ी है। क्या मैं अपनी ही लड़की पर, जिसे मैं आंखों की पुतली समझता था, जिसे सुख से रहने के लिए मैंने कोई बात उठा नहीं रखी, इतना निर्दय हो जाऊं कि उस पर पत्थर फेकूं? लेकिन यह दया का भाव कृष्णचन्द्र के हृदय में देर तक न रह सका। सुमन के पापाभिनय का सबसे घृणोत्पादक भाग यह था कि आज उसका दरवाजा सबके लिए खुला हुआ है। हिंदू, मुसलमान सब वहां प्रवेश कर सकते हैं। यह खयाल आते ही कृष्णचन्द्र का हृदय लज्जा और ग्लानि से भर गया।

इतने में पंडित उमानाथ उनके पास आकर बैठ गए और बोले– मैं वकील के पास गया था। उनकी सलाह है कि मुकदमा दायर करना चाहिए!

कृष्णचन्द्र ने चौंककर पूछा– कैसा मुकदमा?

उमानाथ– उन्हीं लोगों पर, जो द्वार से बारात लौटा ले गए।

कृष्णचन्द्र– इससे क्या होगा?

उमानाथ– इससे यह होगा कि या तो वह फिर कन्या से विवाह करेंगे या हर्जाना देंगे।

कृष्णचन्द्र– पर क्या और बदनामी न होगी?

उमानाथ– बदनामी जो कुछ होनी थी हो चुकी, अब किस बात का डर है? मैंने एक हजार रुपए तिलक में दिए, चार-पांच सौ खिलाने-पिलाने में खर्च किए, यह सब क्यों छोड़ दूंगा? यही रुपए कंगाल-कुलीन को दे दूंगा, तो वह खुशी से विवाह करने पर तैयार हो जाएगा। जरा इन शिक्षित महात्माओं की कलई तो खुलेगी।

कृष्णचन्द्र ने लंबी सांस लेकर कहा– मुझे विष दे दो, तब यह मुकदमा दायर करो।

उमानाथ ने क्रुद्ध होकर कहा– आप क्यों इतना डरते हैं?

कृष्णचन्द्र– मुकदमा दायर करने का निश्चय कर लिया है?

उमानाथ– हां, मैंने निश्चय कर लिया है। कल सारे शहर में बड़े-बड़े वकील-बैरिस्टर जमा थे। यह मुकदमा अपने ढंग का निराला है। उन लोगों ने बहुत कुछ देखभाल कर तब यह सलाह दी है। दो वकीलों को तो बयाना तक दे आया हूं।

कृष्णचन्द्र ने निराश होकर कहा– अच्छी बात है। दायर कर दो।

उमानाथ– आप इससे असंतुष्ट क्यों हैं?

कृष्णचन्द्र– जब तुम आप ही नहीं समझते, तो मैं क्या बतलाऊं? जो बात अभी चार गांव में फैली है, वह सारे शहर में फैल जाएगी। सुमन अवश्य ही इजलास पर बुलाई जाएगी, मेरा नाम गली-गली बिकेगा।

उमानाथ– अब इससे कहां तक डरूं? मुझे भी अपनी दो लड़कियों का विवाह करना है। यह कलंक अपने माथे लगाकर उनके विवाह में क्यों बाधा डालूं?

कृष्णचन्द्र– तो तुम यह मुकदमा इसलिए दायर करते हो, जिसमें तुम्हारे नाम पर कोई कलंक न रहे।

उमानाथ ने सगर्व कहा– हां, अगर आप उसका यह अर्थ लगाते हैं तो यही सही। बारात मेरे द्वार से लौटी है। लोगों को भ्रम हो रहा है कि सुमन मेरी लड़की है। सारे शहर में मेरा ही नाम लिया जा रहा है। मेरा दावा दस हजार का होगा। अगर पांच हजार की डिग्री हो गई, तो शान्ता का किसी उत्तम कुल में ठिकाना लग जाएगा। आप जानते हैं, जूठी वस्तु को मिठास के लोभ से लोग खाते हैं। जब तक रुपए का लोभ न होगा शांता का विवाह कैसे होगा? इस प्रकार से मेरे कुल में भी कलंक लग गया। पहले जो लोग मेरे यहां संबंध करने में अपनी बड़ाई समझते थे, वे अब बिना लंबी थैली के सीधे बात भी न करेंगे, समस्या यह है।

कृष्णचन्द्र ने कहा– अच्छी बात है, मुकदमा दायर कर दो। उमानाथ चले गए तो कृष्णचन्द्र ने आकाश की ओर देखकर कहा– प्रभो, अब उठा ले चलो, यह दुर्दशा नहीं सही जाती। आज उन्हें अपमान का वास्तविक अनुभव हुआ। उन्हें विदित हुआ कि सुमन को दंड़ देने से यह कलंक नहीं मिट सकता, जैसे सांप को मारने से उसका विष नहीं उतरता। उसकी हत्या करके उपहास के सिवाय और कुछ न होगा। पुलिस पकड़ेगी; महीनों इधर-उधर मारा-मारा फिरूंगा और इतनी दुर्गति के बाद फांसी पर चढ़ा दिया जाऊंगा। इससे तो कहीं उत्तम यही है कि डूब मरूं। इस दीपक को बुझा दूं, जिसके प्रकाश से ऐसे भयंकर दृश्य दिखाई देते हैं। हाय! यह अभागिनी सुमन बेचारी शान्ता को भी ले डूबी। उसके जीवन का सर्वनाश कर दिया। परमात्मन्! अब तुम्हीं इसके रक्षक हो। इस, असहाय बालिका को तुम्हारे सिवाय और कोई आश्रय नहीं है। केवल मुझे यहां से उठा ले चलो कि इन आंखों से उसकी दुर्दशा न देखूं।

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